Thursday, October 7, 2010

चाहिये एक विषम

एक दिन का राशन
एक साजन
एक प्रेम मनभावन, पावन
एक लगन, सनातन
एक ही शपथ का एक बार पालन
कभी पलायन
कभी स्थापन
एक एक पल का सजीव उद्घाटन
एक एक पल का फिर नवीन चलन
अपलम् चपलम्...

दस दिशायें, दस अवतार, एक हि अहम
फिर भी एवम
घट घटता जाये
तगडम् तगडम्
रुकती जाये, थकती जाये
नयी ताजा कलम
जैसे ओझल होता आंखोंसे
गया, पुराना बलम.

ना हूँ बला, ना हूँ अबला
शाम से हारा मेरा यौवन
ना हूँ गंधार ना ही पंचम
जीता जाऊं एक मजधार का मन
सर से पतन और पैरों में धन.

एक उठे कभी... विचार, सोच, प्रतिबिंब या सम
फिर जाये थम
एक कवी का आलसी मन
सो जाये
निरंतर, निर्मम, बेमन!

चाहुं अब मैं एक विषम,
बस एक विषम
अनंत ही हो जिसका धर्म
थम जाये, सो जाये
पर फिर हो उगम
घटनेवाले घट की भान्ति
दौडा जाये तगडम् तगडम्
अपलम् चपलम् दुनिया के संग
संसार मे दंग
भरपूर उमंग
पर एक तरंग.

डुबती जाये फिर स्याही में कलम
थिरकती जाये, लहरती जाये
एक क्षण, और वो ही लक्षण
के सम पे हो जाये मिलन
दोनों छोर, हम
और विलीन होनेवाला एक गगन
समा जाये सब सगुण, सरल

पर फिर भी बचे एक सज्जन
सोला आने में एक कम
या फिर ज्यादा
जो हो विषम
मेरा एक विषम
मेरे एक दिन का राशन, एक साजन
मेरा एक प्रेम मनभावन, पावन...