Sunday, August 21, 2011

स्वान्त

साथ, साथी और साधन
इनका समागम इतना दुर्गम
के दुर्लभ जैसा सुखी मन,
स्वान्त सुख में जो करता भ्रमण
रममाण होता जाता, जैसे देखके दर्पण;
भी करले अपने सुख से यही प्रश्न
के भाई साथ तुम हो मेरे या मैं तुम्हारे,
साधन से तुम्हें पाएँ या तुम खुद वो ठहरें;
कर दो हकीकत बयान भैया
वरना ‘स्व’ में अंत पानेवाली यह गाथा
कही वही से ना शुरुआत करने लगे
ना ले आयें अपने साथ, ना निर्माण करें वह व्यथा
जिसमें नीव खोजती यह संस्था
बनी-बनाई, सदियों पुरानी
जिसकी अमर्याद मर्यादाएँ
नदी की तरह बहती
पहुंची उन पांथिकोंके चरणों तक
जो खुद इस अमर्याद का रहस्य खोजते
मर्यादाएं लाँघकर, भ्रमण करते, रममाण होते,
जिनके पग भी तभी रुकते जब
इस अमर्यादसी संस्था का उत्तर
पाते वो एक दिन उसी नदी के नीले जल में,
मुह धोते, अंदर झाँकते, खुदको पाते;
नदी और उनकी आत्मा का एक सजीव स्त्रोत
एक ही होने का वो जब करते उद्घोष;
वोह फिर टहलने लगते
‘स्व’ की नीलाई तले बसे ‘स्व’ की हरियाली में
और फिर खो जाते
‘स्व’ के अंतराल में
‘स्व’ की खोज में अखंड, अंत तक
‘स्वान्त’ आने तक.

मणि कौल को समर्पित.
:(मुझे आज तक (यह कविता लिखने तक), मणि कौल की कोई भी फिल्म देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ. ना ही उनके बारे में कुछ ज्यादा जानने का. सिवाय एक विडियो के जिसमे वोह ब्रेस्सों के बारे में बात कर रहे थे. और फिर वहाँसे उतरकर ‘स्वान्त सुख’ के बारे में बात करने लगे. जाहिर हैं फिल्म उनका स्वान्त सुख पाने का माध्यम था. उन्ही चंद शब्दोंसे प्रेरणा लेकर प्रस्तुत कविता लिखी गयी हैं. मैं समझता हूँ यह क्रमप्राप्त हैं के इस कविता का समर्पण मैं उन्हें करू.)