Saturday, October 11, 2014

डर

वो मानता था के डर होता हैं
वो मानता था के डर हैं

अपने आसपास के लगभग
हर इन्सान की आँखों में
बातों में, ईशारों में, किताबों में
सोच में, सवाल में, जहन में
वक़्त से जलें हुए हर कण में
स्वाभाविक सा
उसे डर नजर आता था
जब की झाँककर देखना बुरा मानते थे
जहाँसे वो आया था 


वो जगह भी अजीब थी
वो जगह अजीब हैं
न गाँव हैं न शहर
यह बस, बस गया हैं
अपनी सीमित दिशाओं के चौक में
जबरन निद्रिस्त आशाओं के मैनहोल में
जान के धस गया हैं

यह दलदल हिलता हैं
अपने अंदर पकती चिंगारियों को
काबू करने की कोशिश में
वो वहाँकी वो चिंगारी था
जो जहाँकी होती नहीं कभी
वो वहाँका वो द्रोही था
जिसका विद्रोह मौन था तभी

डर तब भी था
डर अब भी हैं
सिवाय कुछ सडकों के
वहाँ कुछ बदला नहीं हैं
उन सडकों पर मरनेवालों की
तादाद अब भी वही हैं
उनकी संख्या को जोड़नेवाली
उंगलियां अब भी वही हैं
उन उँगलियों में स्याही की
महक लेकिन अब नहीं हैं
उन उँगलियों के उठने पर
उन्हें मोड़नेवाले अब कई हैं
बल्कि यह उंगलियाँ उठे ही ना
यह देखनेवाली बाजार में मशीनें नई हैं
डर तब भी था
डर अब भी हैं

असल में वो गया नहीं था
भाग गया था
दोपहर से भारी हुई
ऐसीही किसी इक
रात गया था
वो रात आज भी उसके कान के पीछे
खाल की दो परतों के बीच
डरकर छिप गयी हैं
खुजली होती तो बहुत हैं
पर उंगली पहुचती नहीं हैं
बात खलती तो बहुत हैं
पर सुलग़ती नहीं हैं

डर की काली, गीली चट्टान का पहरा
अब हिमालय से भी कडा हैं
और हिमालय पिघल रहा हैं
किंकर्तव्यविमूढ़ के वो क्यों खड़ा हैं

और लोग...
लोग हैं के गिन रहे हैं
दिन, रात, जूते, चप्पलें
संवेदना के हर दरवाज़े
को बंद करने की कोशिश में उलझें तालें
उन तालों की चाबियों को
जलाने के लिए बनाई हुई मशालें
उन मशालों की आग से
जलनेवालों की सूखी हुई खालें
उन खालों को पीसकर
बाजार में होलसेल बेचनेवालों के निवाले
उन निवालों की आस में
सडकों पर मरनेवाले
और उनकी लाशोंपर...
दिन का ख्वाब देखनेवाली
काली रात जैसा डामर बिछाकर
उसे परिवर्तन का नाम देनेवाले...

लोग गिने ही जा रहे हैं...

वो उस नई सड़क पर खड़ा था
जो खाली थी
सिवाय कुछ गधों के
जो अपने गिने जाने के इंतज़ार में
सहसा खडें थे
निरिच्छ, निर्हेतु, निर्विकार

वो उसी नई सड़क पर खड़ा था...

सड़क लाल थी
खून जल चूका था
शरीर पिस चुका था
वक़्त थम गया था
या वक़्त की कल्पना थम गयी थी
कल्पना ही थम गयी थी
कल्पना का अस्तित्व थम गया था
संवेदना का अस्तित्व थम गया था
अस्तित्व की शून्यता में
वो चीख रहा था
पर ध्वनी अनुपस्थित थी
वो देख रहा था
पर दिख नहीं रहा था
अपनी इस हालत को देखकर
वो डर गया था

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