Saturday, October 11, 2014

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वह हर सुबह
खाली दिन को ताकता
सामनेवाली दीवार को परखता
अपने बिस्तर में बैठा रहता हैं। 


दिनचर्या की उलझनें
दो हाथों और एक पेट की दूरी से
उससे अपना रास्ता नाप लेती हैं।
बालों को सुलझाने की
जब उंगलियां कोई भी चेष्टा करती हैं
तो एक बोझ महसूस होता हैं
उसे अपने सीने में।

धँसना महसूस नहीं होता
जब तक इन्सान धँस नहीं जाता,
वरना अपने धँसने के एहसास से
वह इस तरह मुखातिब न होता।

खिड़की से आनेवाली रोशनी का कोण
जितना ज्यादा
उतना ही यह एहसास भी
और उस एहसास के चलते
उस रोशनी से निकला हुआ अँधेरा भी।

अँधेरा अँधेरा होता हैं
उसे परछाई का नाम देने से
उसमें रोशनी का इजाफा नहीं होता।

यह बात वो जानता हैं,
लेकिन इस जानकारी को
जल्द से जल्द भूलना भी चाहता हैं।

आखिर पलायन का सुख
किसे नहीं लुभाता?

कई हैं जो अंदर घर करके रहते हैं
तालाबंद, आजाद
उनकी परछाइयाँ मंडराती हैं
वर्तमान की रोशनी
और अँधेरे की खिड़की
से बने पैटर्नस् के बीच।

शायद यही वो खाली जगहें होती होंगी
जहां दीवार पर दिन को ताकनेवालों की
रातें कटती होंगी

अपनी रात के इंतज़ार में
वो भी बैठा हैं
और तुम भी...
मेरी दीवार पर लिखी
इस कविता को ताकतें...

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